शनिवार, 6 मार्च 2010

धारण ही धर्म!


भारतवर्ष का मूलाधार 'आध्यात्म ' है, जो धर्म के रूप में भिन्न -भिन्न मान्यताओं एवं आस्थाओं के साथ जनमानस में व्याप्त है। इस संसार में, खास कर भारत वर्ष में सैंकड़ों धर्म है जिनके अपने अलग अलग विधान हैं।
धृ धारण पोषणयो:। धातु से मन प्रत्त्याय बन कर धर्म शब्द बना है,धर्म का अर्थ ही 'धारण' करना है।
भारत की संस्कृति आध्यात्म की सुध्र
स्थिति है, जो भारत के महान त्रिकालदर्शियों, ऋषि, मुनियों द्वारा स्थापित है जिन्होंने अपने दिव्य ज्ञान से अपने सिद्धांत स्थिर किए, जो सर्वथा सत्य और प्रामाणिक हैं।
इस संसार में सब कुछ एक नियम के अनुसार संपादित हो रहा है। पृथ्वी हो या आकाश, ग्रह -नक्षत्र, सूर्य -चंद्रमा, जल-वायु, जड़ -चेतन, जीवन-मृत्यु आदि सभी नियम के अनुरूप संपन्न हो रहे हैं, यही नियम वास्तविक धर्म है जिसे प्रत्येक जीवधारी स्वयं में धारण किए हुए है। प्रकृति के नियमों को बदला नही जा सकता। इसी नियम को संपादन करने वाली शक्ति ही 'ईश्वर' है। ईश्वर के इस नियम को प्रत्यक्ष देखने वाले विशिष्ट शक्ति संपन्न इश्वारानुग्रहित पुरूष का नाम ही 'ऋषि' है। इन्ही ऋषियों के दिव्य ज्ञान और अनुभवों के आधार पर ईश्वरीय प्रेरणा से आबद्ध सर्वविध कल्याण के लिए रचे सनातन नियम जो धर्म ग्रंथो में संगृहीत हैं वही 'शास्त्र' हैं, और यही प्रधान चार आधार स्तंभ हैं, जिसमे हमारे भारत की संस्कृति व्यवस्थित है। इसी ऋषि परम्परा को मानने वाला मानव स्वयं 'ऋषि पुत्र' है जिससे हमारा 'गोत्र 'बना है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि हमारा जीवन अपने आप में कितना महत्वपूर्ण है। सूर्य और चंद्रमा में भेद करने वाला मानव क्या ये समझ पाया कि इसे व्यवस्थित रखने वाला आकाश एक है। सत्य तो यह है कि धर्म के नाम पर लोग आज सजग तो हैं पर सहज नही है। कोई भी धर्मशास्त्र बैर नही सिखाता। हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख हो या ईसाई, किसी धर्मशास्त्र में किसी भी दूसरे धर्म की बुराई नही लिखी है। इस संसार में ईश्वर ने मनुष्य को समान ही बनाया। केवल सत्य की राह में चलने और उस तक पहुचने के लिए ही महान ग्रंथो की रचना हुई।

साभार संकलन कई श्रोतों से