रविवार, 12 जुलाई 2009

प्रभु कृपा दुःख दूर करती है |

इस संसार में जीवों को अनेक सुख-दुखों के साथ जीवन चक्र पूरा करना ही होता है यही प्रकृति का नियम (विधि का विधान) है | लेकिन हम मनुष्यों की उत्कंठा हमेशा दुखों को समाप्त करने की रही है | हम दुखों से सबसे ज्यादा घबराते है तथा उन्हें कम करने के उपाय तलाशते हैं | ज्योतिषाचार्य कई विधान बताते है ग्रहों को सांत करने तथा कष्टों को कम करने के लिए जिनसे बहुत लोग वाफिक हैं |

तुलसी कृत रामचरित मानस से हमें ज्योतिष शास्त्र का उस समय से पूर्व प्रचलन का तथा महत्वपूर्ण सूत्रों का पता चलता है | गोस्वामी तुलसी दास जी ने प्रभु कृपा पर बड़ा जोर दिया है | उन्होंने लिखा है कि इस संसार में जितने भी दुःख हैं, चाहे वह मानसिक, शारीरिक और भोतिक, किसी भी तरह के क्यों न हों, भगवान की कृपा बगैर दूर नहीं होते | रामचरित मानस से कुछ महत्वपूर्ण सूत्र यहाँ उद्धरित हैं:
एक व्याधि बस न मरहीं, ए असाधि बहु व्याधि,
पीड़ही संतत जीव कह सों कहि लहें समाधि |
नेम धर्म आचार तप ग्यान जज्ञ जप दान,
मेषज पूति कीटिन्ह नहीं रोग जाहि हरिजान ||
भावार्थ : जहाँ मनुष्य का जीवन समाप्त करने के लिए या अत्यंत दुःख देने के लिए एक व्याधि ही बहुत है, वहां ऐसी असाध्य बीमारियों की तो गणना ही नहीं है और यह रोग ऐसे हैं जिनके निवारण के लिए कोई जप, यज्ञ, दान इत्यादि काम नहीं करते |
सकल विघ्न व्यापति नहीं तेजी,
राम सुकृपा विलकिहीं जेहि |
भावार्थ : इस नासवान संसार में समस्त विघ्न उस मनुष्य को तंग नहीं करते जिसको भगवान अपनी कृपा द्रष्टि से देखते हैं |
राम कृपा नासही सब रोगा |
जे एही भांति बने सन्जोगा ||
भावार्थ : राम कृपा समस्त रोगों का नाश करने वाली है तथा जब कृपा होती है तो समस्या समाधान के अनेक संयोग बन जाते हैं ||

रामचरित मानस से दो और सूत्र यहाँ दिए हैं जो दुखों से दूर रहने में सहायक हैं:
बिना संतोष न कम नसही |
कम अछत सुख सपनेहु नाही ||
भावार्थ : संतोष ही सबसे बड़ा धन है और जब तक संतोष नहीं होता, तब तक कामनाओ का नाश नहीं होता और इसी प्रकार जब तक कामना रहती है, मनुष्य स्वप्न में भी सुख प्राप्त नहीं कर सकता |
बमोह सकल व्याधिन्ह कर मूला |
तिन ते पुनि उपजहि बहु सूला ||
भावार्थ : किसी वस्तु विशेष से लगाव या प्रेम समस्त व्याधियों की जड़ है | इससे कई तरह के कष्ट रुपी कांटे उपजते है |

आभार : गोस्वामी तुलसी दास द्वारा रचित 'श्री राम चरित मानस'