केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने व्यक्तिगत करदाताओं डायरेक्ट टैक्स कोड (डीटीसी) में आयकर छूट सीमा 1.6 लाख रुपए से बढाकर 2 लाख करने के प्रस्ताव को पारित कर दिया है. इसमे घर ऋण ब्याज भुगतान पर 1.5 लाख रुपये पर कर लाभ को बनाए रखा गया है और दीर्घकालिक बचत योजनाओं जैसे कि भविष्य निधि आदि पर भी कर मुक्त स्थिति को जारी रखा है.
डीटीसी पुराने आयकर अधिनियम की जगह लेगा और देश में प्रत्यक्ष कर व्यवस्था का सरलीकरण होगा. विधेयक सोमवार (३० अगस्त २०१०) को संसद में पेश किया जाएगा और दोनों सदनों की एक चयन समिति को भेजे जाने की संभावना है.
सूत्रों ने यह भी बताया कि तीन स्लैब होने की संभावना है: 2-5 लाख आय के लिए 10 प्रतिशत, 5-10 लाख रुपये के लिए 20 प्रतिशत और 10 लाख से ऊपर की आय पर 30 प्रतिशत के हिसाब से आयकर लिया जायेगा.
श्रोत: इंडियन एक्सप्रेस, भारत
शुक्रवार, 27 अगस्त 2010
सोमवार, 23 अगस्त 2010
Owe to protect on this Occasion of Raksha Bandhan
It has been said “If in a society women are not respected, it should be considered not better than a feral existence”. In Indian culture this aspect had long been recognized and thus iconic forms of creator, earth, country etc. are all feminine such as Prakruti, Dharti Mata, Bharat Mata etc. In general, Mother is paid high respect for being able to giving birth.
Indian people are known for living relations like non others specially relations among siblings. All children of the same mother have a strong bonding among themselves as they have all shared the same bomb and thus known as brothers and sisters. Greater emphasis is laid on respecting all women other than wife like a mother or sister. The horizon of brotherhood gets further broadened when we see ourselves as sons and daughter of Bharat Mata (India). Raksha Bandhan is such an occasion which reminds us the strength of relations we cherish, It is not just a festival but a rejoinder of our commitment to save our relations and offer respect to our siblings.
Belief in Indian culture helps to fight at least two sociological and psychological issues which are plaguing world the most.
- Loneliness: It is considered to be worst psychological disorder affecting the maximum number of people in the world. The root cause of the problem lies in not having any belief or depleting trust in our relations. If one considers him self or herself as children of mother earth then no body is alone. One needs to identify the saviour and tentacles of loneliness will be broken in no time.
- Atrocities on Women: Almost all societies on earth are facing agony of atrocities on women/ girls which have resulted due to wild behavior demonstrated by some sick humans. We are fortunate to have been born with fully developed brain unlike animals, which suggests co-existence by formation of civilized societies. But still, there are some on this earth, who follow 'Dog eat Dog’ theory, and for them women are no more than a sex object. The acts of such people push back the sociological developments towards ancient uncivilized existence and if not curbed may cause termination of if not the total mankind but at least a few colonies on this earth. The problem of atrocities on women can be solved by being sensitive and respectful to our relations.
शुक्रवार, 13 अगस्त 2010
आदिगौड़ ब्राह्मण समाज की वेबसाइट
आप सभी के सहयोग और प्रोत्साहन से आदिगौड़ ब्राह्मण समाज की नयी वेबसाइट बनाने का निर्णय लिया है. नयी वेबसाईट www.aadigaur.com पर कुछ ही दिनों में आपकी सेवा में प्रस्तुत की जा रही है.
आशा है आपका सहयोग बना रहेगा.
If you are interested in helping in the noble cause, please contact at the email address.
रविवार, 8 अगस्त 2010
शरीर कैसे नष्ट होता है! अनुगीता में इसकी व्याख्या.
अनुगीता संस्कृत महाकाव्य महाभारत, अश्वमेधिकापर्व का हिस्सा है. इसमे अर्जुन के साथ कृष्ण की बातचीत के उस समय का वर्णन है, जब कृष्ण पांडवों के लिए राज्य बहाल करने के बाद द्वारका में लौटने का फैसला किया. अनुगीता में मुख्य रूप से आत्मा के स्थानांतरगमन, मोक्ष प्राप्त करने का मतलब, गुणों और आश्रम, धर्म का वर्णन और तपस्या का प्रभाव आदि विषयों पर चर्चा सामिल है. इसके दुसरे अध्याय में शरीर कैसे नष्ट होता है, इसके वारे में व्याख्या इस प्रकार है.
काश्यप उवाच
कथं शरीरं च्यवते कथं चैवोपपद्यते।
कथं कष्टाच्च संसारात्संसरन्परिमुच्यते॥२॥
काश्यप बोले
शरीर कैसे नष्ट होता है तथा कैसे उत्पन्न होता है? और इस संसार में भ्रमण करते हुए किस प्रकार कष्टों से मुक्त होता है?
आत्मा च प्रकृतिं मुक्त्वा तच्छरीरं विमुञ्चति।
शरीरतश्च निर्मुक्तः कथमन्यत्प्रपद्यते॥३॥
आत्मा किस प्रकार प्रकृति को त्यागकर उस शरीर से मुक्त होती है? और शरीर से निकलकर कैसे दूसरे शरीर को प्राप्त करती है?
कथं शुभाशुभे चायं कर्मणी स्वकृते नरः।
उपभुङ्क्ते क्व वा कर्म विदेहस्योपतिष्ठति॥४॥
किस प्रकार मनुष्य अपने द्वारा किये शुभ और अशुभ कर्मों को भोगता है? और शरीर छोड़ने के पश्चात् मनुष्य के कर्म कहाँ ठहरते हैं?
ब्राह्मण उवाच
एवं संचोदितः सिद्धः प्रश्नांस्तान्प्रत्यभाषत।
आनुपूर्व्येण वार्ष्णेय तन्मे निगदतः शृणु॥५॥
हे वार्ष्णेय! इस प्रकार पूछने पर उस सिद्ध ने यथाक्रम उन प्रश्नों का उत्तर दिया। वह बताते हुए मुझे सुनो।
सिद्ध उवाच
आयुःकीर्तिकराणीह यानि कर्माणि सेवते।
शरीरग्रहणे यस्मिंस्तेषु क्षीणेषु सर्वशः॥६॥
आयुःक्षयपरीतात्मा विपरीतानि सेवते।
बुद्धिर्व्यावर्तते चास्य विनाशे प्रत्युपस्थिते॥७॥
सिद्ध बोले
शरीर को ग्रहण करने पर मनुष्य आयु और यश प्रदान कराने वाले जिन कर्मों को भोगता है, उन कर्मों के सर्वथा क्षीण हो जाने पर, आयु-क्षय के समीप आने पर वह विपरीत प्रकार के कर्मों को भोगता है। विनाश के उपस्थित होने पर उसकी बुद्धि भी विपरीत दिशा में मुड़ जाती है।
सत्त्वं बलं च कालं चाप्यविदित्वात्मनस्तथा।
अतिवेलमुपाश्नाति तैर्विरुद्धान्यनात्मवान्॥८॥
तथा प्रमादपूर्वक अपने सत्त्व, बल तथा काल को बिना जाने उनसे विरुद्ध आत्यधिक भोगों को भोगता है।
यदायमतिकष्टानि सर्वाण्युपनिषेवते।
अत्यर्थमपि वा भुङ्क्ते न वा भुङ्क्ते कदाचन॥९॥
जब मनुष्य सभी अतिकष्टदायक कर्म करता है या फिर अत्यधिक भोजन करता है या फिर कभी भी भोजन नहीं करता है;
दुष्टान्नामिषपानं च यदन्योन्यविरोधि च।
गुरु चाप्यमितं भुङ्क्ते नातिजीर्णेऽपि वा पुनः॥१०॥
जब यह दुष्ट अन्न या आमिष भोजन या मदिरा का सेवन करता है या ऐसे पदार्थों का सेवन करता है जो एक-दूसरे के विरोधि हैं या अत्याधिक भारी भोजन करता है या पिछले भोजन को बिना पचाये भोजन करता है;
व्यायाममतिमात्रं वा व्यवायं चोपसेवते।
सततं कर्मलोभाद्वा प्राप्तं वेगविधारणम्॥११॥
या जब अत्यधिक व्यायाम करता है या अत्यधिक काम का सेवन करता है या शरीर के मलत्याग की क्रियाओं को रोकता है;
रसातियुक्तमन्नं वा दिवास्वप्नं निषेवते।
अपक्वानागते काले स्वयं दोषान्प्रकोपयन्॥१२॥
या अत्यधिक रस से युक्त भोजन करता है या दिन में स्वप्न देखता है या बिना पके हुए भोजन का सेवन करता है, वह समय आने पर अपने शरीर के दोषों को (वात, पित्त और कफ) प्रकुपति कर देता है
स्वदोषकोपनाद्रोगं लभते मरणान्तिकम्।
अथ चोद्बन्धनादीनि परीतानि व्यवस्यति॥१३॥
आपने शरीर के दोषों के कोप से मृत्यु प्राप्त कराने वाले रोगों से ग्रसित हो जाता है अथवा अपने को फाँसी लगाने जैसे कार्यों में व्यवसित हो जाता है।
तस्य तैः कारणैर्जन्तोः शरीराच्च्यवते यथा।
जीवितं प्रोच्यमानं तद्यथावदुपधारय॥१४॥
इन कारणों से जन्तु के शरीर से जिस प्रकार जीवन का अलगाव होता है, उसे मेरे द्वारा बताते हुए यथावत समझो।
ऊष्मा प्रकुपितः काये तीव्रवायुसमीरितः।
शरीरमनुपर्येति सर्वान्प्राणान्रुणद्धि वै॥१५॥
तीव्र वायु के उकसाने पर कुपित ऊष्मा पूरे शरीर को व्याप्त करती है और सभी प्राणों को रोक देती है।
अत्यर्थं बलवानूष्मा शरीरे परिकोपितः।
भिनत्ति जीवस्थानानि तानि मर्माणि विद्धि च॥१६॥
शरीर में अत्याधिक कुपित ऊष्मा जीवस्थानों को भेद देती है। उन स्थानों को मर्म स्थान जानो।
ततः सवेदनः सद्यो जीवः प्रच्यवते क्षरात्।
शरीरं त्यजते जन्तुश्छिद्यमानेषु मर्मसु॥१७॥
तब कष्टपूर्वक जीवात्मा इस क्षर शरीर से अलग हो जाता है। मर्म स्थानों के छेदन होने पर जन्तु अपना शरीर त्याग देता है।
साभार संकलन,
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