ज्योतिष की परिभाषा में मंगल अग्नि प्रधान गृह होने के कारन अनिष्ट फल प्रदान करने में देर नहीं करता. यही वजह है की भावी वर वधु की कुंडली मिलाने में मांगलिक गुणों को मिलाना अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है. यह परंपरागत/ सनातन मान्यता है कि यदि वर की कुंडली मांगलिक है तो वधु की कुंडली भी मांगलिक होनी चाहिए.
किसी भी कुंडली में यदि मंगल अशुभ फल देने वाला है तो वह किसी न किसी तरह अनिष्ट करेगा ही. लेकिन मंगल की कुछ स्तिथियाँ ऐसी होतीं हैं जो वर/ वधु या फिर उनके दाम्पत्य जीवन के लिए घातक होती हैं. इन्ही कुछ विशिष्ट स्तिथि वाली कुंडलियों को ही मांगलिक कुंडली कहा जाता है. साधारण ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी यह जान सकता है की अमुक कुंडली मांगलिक है या नहीं.
किसी भी जन्म कुंडली में 'लग्न' कुंडली को ध्यान से देखो. लग्न कुंडली प्रायः सबसे पहले वाली कुंडली होती है.
यदि मंगल की स्तिथि यहाँ दिए गए चित्र की किसी भी स्तिथि से मेल खाती है तो कुंडली मांगलिक है. ज्योतिष के अनुसार अशुभ मंगल की प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादस स्थानों में उपस्थिति दांपत्य जीवन नष्ट करने वाली होती है.
मांगलिक कुंडली कोई दोष या शाप नहीं है क्योंकि, मंगल कुंडली से बाहर तो हो नहीं सकता. सिर्फ मांगलिक कुंडली जानने के बाद किसी निष्कर्ष पर पहुँचना कठिन है. कुंडली मिलाने में यह भी देखा जाता है की मंगल शुभ फल देने वाला है या फिर अशुभ. क्या मंगली भंग योग भी बनता है. शनि और गुरु की शुभ स्तिथि मंगल के दोषों को समाप्त कर देने वाली है.
धार्मिक परंपरा के अनुसार यदि मजबूरी में मांगलिक कन्या या वर का विवाह किसी अमांगलिक के साथ करना भी पड़े, तो विवाह मुहूर्त से पहले कन्या के फेरे विष्णु प्रतिमा से करने का उपाय मंगल को शांत करने वाला बताया है.
तर्कसंगत यही है कि मांगलिक कुंडली होने पर, विवाह पूर्व ज्योतिषीय सलाह एक उचित समाधान हो सकता है.